Blog

भाजपा के फैसलों पर जाति गणना का असर

अजीत द्विवेदी
नरेंद्र मोदी की कमान वाली भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की राजनीति का एक बुनियादी फर्क यह है कि भाजपा जमीनी वास्तविकताओं को समझते हुए सोशल इंजीनियरिंग करती है, जबकि कांग्रेस इस मामले में आदर्शवादी बातें ज्यादा करती है, जैसे इन दिनों राहुल गांधी करते फिर रहे हैं। भाजपा को एक बार भी सामाजिक न्याय, आरक्षण या जाति गणना आदि पर बड़ी बड़ी बातें करते नहीं सुना गया, लेकिन जब मौका मिला तो उसने आदिवासी, पिछड़ा, ब्राह्मण, दलित, ठाकुर सबका समीकरण बनाया। यह काम उसने बिना कहे और बिना ढिंढोरा पीटे किया है। अलग अलग सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करने के लिए भाजपा ने कैसे चेहरे चुने यह अलग चर्चा का विषय है लेकिन तीन मुख्यमंत्री, छह उप मुख्यमंत्री और तीन स्पीकर के जरिए भाजपा ने व्यापक रूप से अलग अलग सामाजिक समूहों को मैसेज दिया है।
सोचें, जाति गणना कराई है कि राजद, जदयू और कांग्रेस गठबंधन की बिहार सरकार ने लेकिन उस पर सबसे पहले अमल किया है भाजपा ने। तीनों राज्यों में तमाम नियुक्तियों पर जाति गणना का असर दिख रहा है।

दूसरी ओर कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां जुबानी जमाखर्च ज्यादा कर रही हैं। बिहार में राजद, जनता दल यू और कांग्रेस की सरकार ने जाति गणना कराई और आबादी के अनुपात मे आरक्षण बढ़ाने का ऐलान भी किया लेकिन सत्ता नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के परिवार के हाथ में ही रहेगी। सवाल है कि जब जाति गणना के आंकड़े से पता चलता है कि सबसे बड़ा आबादी समूह अत्यंत पिछड़ी जातियों का है, जिसकी कुल आबादी में हिस्सेदारी 36 फीसदी है तो उसका व्यक्ति मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनना चाहिए? पिछले 33 साल से यादव और कुर्मी के पास मुख्यमंत्री की कुर्सी है, जिसकी आबादी में साझा हिस्सेदारी 17 फीसदी है।

दूसरी ओर भाजपा ने जाति गणना का एक तरह से विरोध किया है और प्रधानमंत्री मोदी बार बार कह रहे हैं उनके लिए सिर्फ चार जातियां हैं- गरीब, किसान, नौजवान और महिलाएं। जाति गणना नहीं कराने या परोक्ष रूप से उसका विरोध करने के बावजूद भाजपा जाति गणना के आंकड़ों को गंभीरता से ले रही है, जिसका असर उसकी राजनीति पर दिख रहा है। भाजपा ने अपनी राजनीति में पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, युवाओं की हिस्सेदारी बढ़ानी शुरू कर दी है। वह तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीती तो छत्तीसगढ़ में पहला निर्विवादित आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया। आदिवासी बहुल राज्य का मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को बनाया गया। उनके साथ एक ब्राह्मण और एक पिछड़ी जाति के नेता को उप मुख्यमंत्री बनाया गया। मध्य प्रदेश में भाजपा ने पिछड़ी जाति से आने वाले शिवराज सिंह चौहान को बदला तो मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया। उनके साथ भी एक ब्राहमण और एक दलित समुदाय के नेता को उप मुख्यमंत्री बनाया गया। ऐसे ही राजस्थान में भाजपा ने अपना पहला ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाया तो साथ में एक राजपूत और दलित समाज के नेता को उप मुख्यमंत्री बनाया।

चुनाव में भाजपा ने इस तरह का कोई वादा नहीं किया था या सामाजिक न्याय का मुद्दा लेकर लडऩे नहीं उतरी थी। दूसरी ओर कांग्रेस के राहुल गांधी और दूसरे नेता जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि अगड़ी जातियों में यह मैसेज बना कि कांग्रेस उनकी विरोधी है। दूसरी ओर पिछड़ी जातियों में भी कांग्रेस को लेकर भरोसा नहीं बना कि वह सचमुच उनकी हितैषी है। सो, पार्टी दोनों तरफ से गई। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बड़ी हार इसकी मिसाल है। भाजपा भी पिछड़ी जातियों की राजनीति कर रही है लेकिन यह मैसेज नहीं बनने दे रही है कि वह अगड़ी जातियों की विरोधी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तरफ 35 फीसदी मंत्री पिछड़ी जाति का बनाने का दावा करते हैं तो गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का कानून भी बनाते हैं। अब भी तीन राज्यों में ब्राह्मण समाज से एक मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री बनाए हैं। देश में मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के अलावा राजेंद्र शुक्ला, विजय शर्मा, देवेंद्र फडऩवीस और ब्रजेश पाठक के रूप में चार उप मुख्यमंत्री ब्राह्मण हैं। दो राजपूत मुख्यमंत्रियों- योगी आदित्यनाथ और पुष्कर सिंह धामी के अलावा एक उप मुख्यमंत्री दीया कुमारी भी हैं। इस तरह भाजपा ने संतुलन बनाने की कला दिखाई है।

लेकिन बुनियादी रूप से वह कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों से पहले से पिछड़े, दलित, आदिवासी की राजनीति कर रही है। झारखंड में भाजपा ने आदिवासी समाज के बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष और दलित समुदाय के अमर बाउरी को नेता प्रतिपक्ष बनाया है। राज्य के दो नेता केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य हैं, जिनमें अर्जुन मुंडा आदिवासी हैं और अन्नपूर्ण देवी पिछड़े वर्ग से आती हैं। बिहार में पिछड़ी जाति के सम्राट चौधरी प्रदेश अध्यक्ष हैं तो अत्यंत पिछड़ी जाति के हरि साहनी विधान परिषद में नेता हैं। बिहार में जरूर भाजपा ने विधानसभा में अगड़ी जाति का नेता प्रतिपक्ष रखा है लेकिन उसका दूसरा कारण है। विजय सिन्हा पहले स्पीकर थे और तब नीतीश कुमार से उनका झगड़ा हुआ था। नीतीश ने सदन के अंदर आसन पर बैठे विजय सिन्हा का अपमान किया था इसलिए अगड़ी जातियों में नीतीश के खिलाफ मैसेज बनवाने के लिए उनको नेता विपक्ष बनाया गया। इसका मतलब है कि जिन राज्यों में जाति और समुदाय का मुद्दा राजनीति को प्रभावित करता है वहां भाजपा जरूर उसके संतुलन का ध्यान रखती है।

इसके उलट अगर कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों को देखें तो बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में जदयू को छोड़ दें तो बाकी दो पार्टियों का नेतृत्व एक परिवार के हाथ में है और कांग्रेस के तीनों अध्यक्ष अगड़ी जाति के हैं। भाजपा पहले भी सोशल इंजीनियरिंग का बहुत ख्याल रखती थी। उसने मंदिर आंदोलन के समय गोविंदाचार्य की पहल पर उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग की थी। तब यूपी में कल्याण सिंह, विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह जैसे पिछड़ नेता होते थे। इसी राजनीति के तहत मध्य प्रदेश में उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान का प्रयोग हुआ, जिसकी अगली कड़ी मोहन यादव हैं। बिहार में भाजपा यह प्रयोग इसलिए नहीं कर सकी क्योंकि वह नीतीश कुमार की पिछलग्गू थी और नीतीश नहीं चाहते थे कि भाजपा में अगड़ा या अति पछड़ी जातियों का कोई नेता उभरे। इसलिए उन्होंने सुशील मोदी और नंदकिशोर यादव को ही नेता बनाए रखा। तभी बिहार में उसका प्रयोग थोड़ी देर से शुरू हुआ लेकिन बाकी जगह उसने जातियों का बहुत अच्छे तरीके से संतुलन बनाया है। हिंदुत्व के व्यापक संदेश और राष्ट्रवाद के बहुत स्ट्रॉन्ग डोज के साथ साथ भाजपा ने सत्ता में जातियों की भागीदारी का संतुलन भी बना रखा है।

असल में भाजपा को पता है कि संचार साधनों की प्रचूरता के मौजूदा दौर में सिर्फ बातों से काम नहीं चलेगा। जिन लोगों का वोट लेना है उनको सत्ता में हिस्सेदारी देनी होगी और उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक हित सुरक्षित हैं। दूसरी ओर लगभग सभी प्रादेशिक पार्टियों के लिए सामाजिक समीकरण का मतलब कुछ चुनिंदा परिवारों के हितों की रक्षा करना है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के समस्या यह है कि वे हमेशा एक लाइन पकड़ कर चलते हैं। राजनीति में संतुलन और जिस मध्यमार्ग को साधने की जरुरत होती है उसका प्रशिक्षण उनका नहीं है। दूसरे, वे जो बड़ी बड़ी आदर्शवादी बातें करते हैं उसके हिसाब से उनकी पार्टी का आचरण नहीं होता है। जाति के मामले में भी विरोधाभास सबको दिखाई देता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *