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पर पेट्रोल, कोयला ईधन क्या खत्म होगा?

श्रुति व्यास
सीओपी28 जलवायु सम्मेलन में एक समझौता मंजूर हुआ  है। इसमें दुनिया को तेल, गैस और कोयले जैसे फॉसिल फ्यूल से दूर रहने का स्पष्ट आव्हान है। समझौते के समर्थकों का दावा है कि इससे पहली बार देश फॉसिल फ्यूल्स का उपयोग बंद करेंगे ताकि जलवायु परिवर्तन के भयावह नतीजों से पृथ्वी बच सके।

संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में हुए इस सम्मेलन में दो हफ्ते जोरदार बहस हुई। अंत में समझौते पर सहमति बनी। जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों से जिन देशों को सबसे ज्यादा खतरा है, उन्होने और यूरोपीय नेताओं  ने समझौते में फॉसिल फ्यूल्स के उपयोग को पूर्णत: समाप्त करने की मांग की थी। लेकिन बड़े तेल निर्यातक देशों जैसे सऊदी अरब और ईराक के साथ ही भारत और नाईजीरिया जैसे तेजी से प्रगति कर रहे देशों ने इसका विरोध किया। अंत में जो मसविदा तैयार हुआ उसमें “चरणबद्ध तरीके से हटाने” और “चरणबद्ध ढंग से घटाने” जैसे शब्दों का उपयोग करने के बजाए फॉसिल फ्यूल्सन से ‘‘दूर जाने” की बात कही गई।

समझौता संयुक्त अरब अमीरात की एक कूटनीतिक विजय है। इस समझौते को “यूएई सर्वसम्मति” कहा जा रहा है। बातचीत में मुख्य भूमिका निभाने वाले सुल्तान अल जबेर, जो अमीरात के अधिकारी हैं और तेल उद्योग से जुड़े हुए हैं, ने सम्मेलन में फॉसिल फ्यूल्स का उपयोग धीरे-धीरे समाप्त करने को ‘अपरिहार्य’‘ बताया।उन्होने अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाया और लॉबिग की।उन्ही की वजह से तेल उत्पादक देश एक नए और बड़े जलवायु परिवर्तन समझौते पर हस्ताक्षर के लिए राजी हुए।

हालांकि यह समझौता वैधानिक दृष्टि से बाध्यकारी नहीं है और अपने आप में किसी देश को कार्यवाही करने के लिए बाध्य नहीं करता। मगर कई राजनीतिज्ञ, पर्यावरणविद और उद्योग जगत की हस्तियों को उम्मीद है कि इससे नीति-निर्माताओं और निवेशकों को यह सन्देश जायेगा कि फॉसिल फ्यूल्स के अंत की शुरुआत हो गयी है। अगले दो वर्षों में हर देश को इस बारे में एक विस्तृत और औपचारिक योजना प्रस्तुत करनी है कि वे 2035 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कैसे कम करेंगे। बुधवार को हुआ समझौता इन योजनाओं के लिए मार्गदर्शक का काम करेगा।

यह तो वक्त ही बताएगा कि विभिन्न देश इस समझौते का पालन करते हैं यह नहीं। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित रखा जाना है तो इस दशक के अंत तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 43 प्रतिशत की कमी लानी होगी। अगर यह सीमा पार हो गयी तो दुनिया को समुद्रतल के बढ़ते स्तर, जंगलों में भयावह आग, तूफानों और सूखे का सामना करना पड़ेगा।

जलवायु नियंत्रण के मसले में न्याय के हिमायती लोगों का कहना है कि समझौता उतना निष्पक्ष नहीं है जितना होना चाहिए। छोटे द्वीपों के देशों के गठबंधन का कहना है कि समझौते में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए दुनिया की दिशा में बदलाव के लिए वैश्विक स्तर पर जो किया जाना है, उसमें उपयुक्त संतुलन नहीं है। इन देशों में से कई समुद्रतल का स्तर बढऩे से पानी में समा सकते हैं।

यद्यपि समझौते की तारीफ हो रही हैं मगर वैज्ञानिकों, जलवायु कार्यकर्ताओं और आलोचकों के अनुसार इसमें बहुत सी कमियां हैं और ढेर सारी खोखली बातें हैं। बहुत सी समस्याएं भी हैं। विकासशील देशों को कोयले, तेल और गैस का इस्तेमाल बंद या कम करने के लिए करोड़ों डॉलर की मदद की ज़रुरत होगी। विकसित देश और तेल उत्पादक उतनी तेजी से सही दिशा में आगे नहीं बढ़ेगें जितनी तेजी से वैज्ञानिकों के अनुसार उन्हें बढऩा चाहिए। अमेरिका बहुत आसानी से अपनी जिम्मेदारियों से बच निकला है। उसने गरीब देशों को केवल 20 मिलियन डॉलर देने का वचन दिया है और वह दुनिया का सबसे बड़ा आयल और गैस उत्पादक बना रहेगा। चीन अपना कोयला और रिन्यूएबल एनर्जी दोनों का उत्पादन बढ़ाता रहेगा। भारत के कोयला उद्योग को भी कोई डर या खतरा नहीं है।

गर्मी बढ़ती जा रही है और 1.5 डिग्री की सीमा पास आती जा रही है। सरकारों को अपने वायदे पूरे करने चाहिए और यह समझना चाहिए कि फॉसिल फ्यूल्स के युग का अंत आ चुका है। मगर असल में होगा क्या यह आप और मैं दोनों जानते हैं।

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