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‘बेशर्म रंग’ की राजनीति

सुधीश पचौरी
‘हमें तो लूट लिया मिलके इश्क वालों ने..बेशर्म रंग कहां देखा दुनिया वालों ने..।’ ये इस गाने की निरी ‘मिसोजिनिस्टक सेक्सिस्ट’ लाइनें हैं।
इससे पहले जो दो लाइनें गाई जाती हैं, वे शायद स्पेनिश में हैं, जो कहती दिखती है कि ‘आज की रात जिदंगी पूरी है..।’ जिस गाने की धुन के साथ इसे ‘फ्यूज’ किया गया है, वह 1958 की फिल्म ‘अल हिलाल’ में कव्वाल इस्माइल आजाद और उनकी टीम की गाई कव्वाली है, जो इस प्रकार है: ‘हमें तो लूट लिया मिलके हुस्न वालों ने/काले-काले बालों ने गोरे-गोरे गालों ने’-यहां सिर्फ ‘हुवालों की बेवफाई’ की शिकायत है ‘पठान’ वाली नंगई जरा भी नहीं।

यह गाना किसी छोटे ‘ऐश-जजीरे’ पर फिल्माया गया है, जिसके चारों ओर ‘बे वाच’ वाला समुद्र है, जिसमें नावें तैरती हैं। जजीरे पर बहुत सी सुंदरियां विविध रंगों की बिकिनियों में बालू पर धूप सेंकती हैं। गाने में कैमरा दीपिका पर फोकस्ड है। वह एक झूले पर ‘लॉन्ग बिकिनी’ में शरीर को सेक्सीले ढंग से तोड़ते-मरोड़ते हुए इस गाने को शुरू करती है, और दूर खड़े शाहरुख खान को निहारती है। शाहरुख खान उर्फ ‘पठान’ धूप का चश्मा पहने दीपिका को देखता है, और अपने ‘सिक्स पेक ऐब्स’ दिखाता मुस्कुराता है। कैमरा फिर मटकती-थिरकती दीपिका पर आता है। गाने के दौरान तीन चार बार वह बिकिनी बदलती है। पीले और नीले काले रंग की बिकिनियों में ‘विपरीत रति’ एक्ट करती दिखती है, फिर भगवा रंग की लॉन्ग बिकिनी में, काला कोट पैंट पहने खड़े शाहरुख से लिपटती हुई ‘सेक्स एक्ट’ करने का अभिनय करती है।

बहुत से हिंदुओं को भगवा रंग की बिकिनी पहन कर ऐसा एक्ट करने पर आपत्ति है। उनको लगता है कि यह गाना हिंदुओं के लिए पवित्र रंग ‘भगवा’ को सेक्सोन्मादी रूप में दिखाकर उनकी भावनाओं को चोट पहुंचाता है। वे मानते हैं कि यही ‘बेशर्म रंग’ की राजनीति है। यह गाना ‘भगवा’ को भी ‘बेशर्म रंग’ बताता है! कुछ मानते हैं कि चूंकि हिंदू सहनशील हैं, इसलिए ये ऐसा अक्सर करते रहते हैं। अब हम भी सहने वाले नहीं और अगर फिल्म ऐसी ही रही तो हम उसे चलने भी नहीं देंगे..। यही चिह्नों की राजनीति है, जो बड़ी बारीक है। ‘पठान’ फिल्म के विरोध से उठे विवाद में ऐसे ही तर्क सामने आए हैं जिनके जवाब में फिल्म के पक्षधर कहते हैं कि यह ‘कला की आजादी’ पर आघात है, कि ‘जिसे देखना हो देखे, नहीं तो न देखे’ लेकिन फिल्म के ‘बॉयकाट’ की मांग क्यों? ऐसे पक्षधरों को समझना होगा कि पिछले बरसों में कुछ फिल्मों या विज्ञापनों के संदर्भ में कुछ हिंदू समूहों ने जो कुछ  आपत्तियां की हैं, प्रदर्शन किए हैं, ‘बॉयकाट’ का नारा दिया है, सिनेमा हॉलों में तोडफ़ोड़ तक की है, उसके कारण सिर्फ राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक भी हैं। इसीलिए ‘कलात्मक आजादी’ का तर्क अब नहीं चलता दिखता।
ऐसे में कुछ कठिन सवाल पूछा जाना जरूरी है जैसे कि ऐसी फिल्में ही क्यों बनाई जाती हैं, जिनमें सेक्स के साथ-साथ प्रच्छन्न धार्मिक प्रतीकों का तडक़ा भी होता है? दोनों सवालों का जवाब हमारे बॉलीवुड के ‘खाड़ी कनेक्शन’ और ‘साझी कल्चर’ की अवधारणा में खोजा जा सकता है। सब जानते हैं कि बॉलीवुड की फिल्में शुरू से एक ‘हाइब्रिड कल्चर’ को बनाती-बेचती आई हैं, और इस तरह की ‘साझी कल्चर’ का सबसे बड़ा मारकेट खाड़ी देश हैं। लेकिन यह जमाना ‘ग्लोबल ’ और ‘ऑनलाइन’ मारकेट का है, बल्कि ‘अस्मितामूलक राजनीति’ का भी है, जहां हर समुदाय अपने अस्मिता ‘चिह्नों’ को देखता-दिखाना चाहता है, ‘अन्य अस्मिताओं’ से चिढ़ता है।

इसी से स्पष्ट है कि फिल्मों को देखने वाले ‘दर्शक समाज’ की नजरें तो बदल गई हैं जबकि बॉलीवुड नहीं बदला है। वह उसी पुराने तरीके से ‘हिंदू-मुस्लिम’ करता रहता है जबकि जमीन पर ‘साझी कल्चर’ की रोज ऐसी की तैसी होती नजर आती है, और उसकी जगह भी ‘एक्सक्लूसिव कल्चर’ लेने लगी है। ऐसे में फिल्म बनाने वाला अपने तरीके से फिल्म बनाकर धंधा करना चाहेगा तो दर्शक का अस्मितावादी नजरिया ‘चिह्नों की राजनीति’ को फौरन पकड़ लेगा और विवाद पैदा हो जाएगा। बॉलीवुड को समझना होगा कि आज का फिल्म दर्शक पुराना ‘भोलभाला’ दर्शक नहीं है, बल्कि ‘अस्मितावादी’ हो चुका है जबकि बॉलीवुड नहीं बदला है। आज का दर्शक फिल्मों के ‘चिह्नों’ को पढ़ता है, और जरा भी इधर-उधर होने पर हल्ला मचाने लगता है। जब दर्शक बदल जाते हैं, तो नाटक को भी बदलना होता है। इसलिए अब बॉलीवुड को भी बदलना होगा।

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