Wednesday, December 6, 2023
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भारत जोड़ो यात्रा : सफलता-विफलता के बीच

डॉ. अजय तिवारी
सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बदलाव की आहट बहुत-से रूपों में निलती है। एक धारणा के अनुसार कुछ राजनीतिज्ञ ‘मौसम विज्ञानी’ होते हैं। आने वाले बदलाव की आहट सबसे पहले पा जाते हैं, और समय रहते पाला बदल लेते हैं। इसलिए सरकारें बदलती हैं, लेकिन वे मंत्रिमंडल में सुशोभित रहते हैं। लेकिन बुद्धिजीवियों को यह श्रेय नहीं दिया जाता जबकि वे सामाजिक मनोविज्ञान, राजनीतिक गतिविधियों और आर्थिक परिवर्तनों का अध्ययन-विश्लेषण करके बदलाव की ओर संकेत करते हैं।

मार्क्स कहते थे कि बौद्धिक हलचलें सतह के नीचे उठते परिवर्तन की आहट देती हैं क्योंकि ‘मस्तिष्क अनेक सूक्ष्म तंतुओं द्वारा समाजरूपी शरीर से जुड़े रहते हैं।’ इस बात को हम भारतीय राजनीतिक संदर्भ में भी देख सकते हैं। 2012-13 में दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की तीखी आलोचना चालू कर दी थी। उनकी आलोचना का प्रमुख मुद्दा कांग्रेस की जनकल्याणकारी योजनाएं भी थीं। वेसरकारी रियायतों का विरोध करते थे, बाजार द्वारा कीमतों के नियंत्रण का पूर्ण समर्थन करते रहे, यहां तक कि पेट्रोल को उसी समय सौ रुपये लीटर करने की वकालत करते थे। इसके लिए वे भाजपा की, उससे भी अधिक मोदी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। इस प्रशंसा का आधार ‘गुजरात मॉडल’ था जिसे कॉरपोरेट-फ्रेंडली माना जाता रहा है। स्वामीनाथन अय्यर कॉरपोरेट-परस्त नीतियों के जोरदार समर्थक रहे हैं। वे पश्चिम के उन अर्थशास्त्रियों के विरोधी हैं, जो भूमंडलीकरण की असंगतियों की चर्चा करते हैं। भूमंडलीकरण से देशों और समाजों में बढ़ती आर्थिक खाई को अय्यर विकास का प्रेरक मानते हैं। इन आर्थिक नीतियों की प्रशंसा के साथ संघ-भाजपा की सांप्रदायिक नीतियां भी उन्हें आपत्ति का विषय नहीं लगती थीं। बल्कि कांग्रेस की सेक्युलरिज्म की नीति में उन्हें खोट दिखता था।

इसका अर्थ है कि आर्थिक नीति और सामाजिक नीति में अंतर्विरोध होने पर उनका बल आर्थिक नीतियों पर था। इससे साबित है कि भारत का कॉरपोरेट जगत और उसका समर्थक बुद्धिजीवी 2014 के बदलाव के लिए पूरी तरह न सिर्फ  तैयार था बल्कि उसके लिए वातावरण बनाने में भी संलग्न था। इधर इन दक्षिणपंथी कॉरपोरेट समर्थक बुद्धिजीवियों का रुख बदला-बदला है। इसके उदाहरण के रूप में स्वामीनाथन अय्यर को ही लें। उन्होंने राहुल गांधी के विचारों की सेक्युलर धुरी की प्रशंसा शुरू की है। अभी पहली जनवरी 2023 को एक अंग्रेजी अखबार में अपने स्तंभ ‘स्वमिनामिक्स’ में उन्होंने कहा है, ‘नरम हिंदुत्व के स्थान पर घृणा के प्रति कड़ा रुख’ स्वागतयोग्य है। कारण यह कि उग्र हिंदुत्व के विरुद्ध लड़ाई नरम हिंदुत्व से नहीं लड़ी जा सकती, लडक़र भी नहीं जीती जा सकती। ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ की आलोचना करते हुए स्वामीनाथन ने लिखा है कि ‘हिंदुत्व सहिष्णुता का द्योतक है, घृणा का नहीं।’ इसीलिए जो लोग मानते हैं कि सेक्युलरिज्म को बढ़ावा देना हिंदू भावनाओं को आहत करता है, वे हिंदुत्व को बिल्कुल नहीं समझते।

यह बदला हुआ स्वर है, जिसके लिए आर्थिक प्रश्न के साथ सामाजिक सौहार्द का पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। यह नजरिया वामपंथी या मध्यमार्गी बुद्धिजीवी नहीं, घोषित रूप में दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी का है। सामाजिक सौहार्द को पिछले आठ-नौ वर्षो में इतनी क्षति पहुंची है कि राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा पर निकले हैं, जिसे हर क्षेत्र में प्रत्येक जन-समुदाय का व्यापक समर्थन मिल रहा है। स्वामीनाथन ने लक्षित किया है कि इस यात्रा के चलते राहुल की ‘पप्पू’ छवि के भीतर से एक अधिक ठोस चीज निकल कर आई है। इस यात्रा की दृश्यावली भव्य है लेकिन राहुल और कांग्रेस के सामने इस यात्रा के नतीजों को सहेजने की जिम्मेदारी है। इसके बिना इस यात्रा के सुफल को वोट में नहीं ढाला जा सकता। खुद भाजपा ने यात्रा के लोकव्यापी प्रभाव को स्वीकार किया है। स्वामीनाथन ने इस स्वीकृति को महत्त्वपूर्ण माना है।

राहुल ने संघ-भाजपा की विचारधारा से सीधे टकराव का रास्ता चुना है। सावरकर के माफीनामे को उन्होंने सोच-विचारकर मुद्दा बनाया है। कुछ समाज वैज्ञानिकों के अनुसार राहुल ने यह गलती की। इससे उनकी यात्रा का उद्देश्य भटकता है। लेकिन अय्यर मानते हैं कि राहुल ने यह उचित किया। एक तो इससे इतिहास के पुर्नेखन की कोशिशों में जो विकृति लाने का प्रयास किया जा रहा है, उस पर ध्यान केंद्रित होगा, दूसरे नरम हिंदुत्व की बजाय धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता स्पष्ट होगी। खुद अय्यर का विचार है कि कांग्रेस को सेक्युलरिज्म पर दृढ़तापूर्वक लौटना चाहिए क्योंकि सांप्रदायिक सौहार्द केवल धर्मनिरपेक्षता का अंग हो सकता है।

इस आकलन का महत्त्व यह है कि दक्षिणपंथ में नीतियों को लेकर विशेषत: सांप्रदायिकता के प्रश्न पर एकमतता नहीं है. इस कारण आर्थिक मुद्दों पर आपसी सहमति गौण हो जाती है।  वास्तविकता यह है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। अंतर है सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों में। चूंकि वामपंथ का अस्तित्व हाशिये पर चला गया है, इसलिए दक्षिणपंथ में नीतिगत भिन्नता का लाभ मध्यमार्गी कांग्रेस को मिलना निश्चित है।

बेशक, इसके लिए कांग्रेस को सांगठनिक दृष्टि से भाजपा के मुकाबले में सक्षम होना पड़ेगा। यह काफी दुष्कर कार्य है। संघ ने अपने आनुषांगिक संगठनों और अपने प्रभाव के व्यक्तियों के माध्यम से जितना सघन और व्यापक ताना-बाना बना लिया है, उसका मुकाबला अंतर्कलह से जूझती और स्थानीय क्षत्रपों के आगे बेबस कांग्रेस के वश का नहीं है। संयोग नहीं है कि राहुल एक ओर भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों से सीधे टकराने की नीति पर चल रहे हैं, तो दूसरी और आरएसएस को अपना प्रेरणा स्रेत भी बता रहे हैं। नीतियों में भाजपा से अलगाव और सांगठनिक स्तर पर संघ से सीख-यह द्वंद्वात्मक रुख राहुल की बढ़ती राजनीतिक परिपक्वता का द्योतक है। यह कांग्रेस के चिर-परिचित व्यवहार की आवृत्ति भर नहीं है। ज्यों-ज्यों भाजपा सरकार की असफलताओं से जनता की तकलीफें बढ़ती जा रही हैं, त्यों-त्यों राहुल का रुख ग्राह्य बन रहा है।

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